Home देश अंतिम संस्कार में पेड़ लगाने की अनोखी पहल

अंतिम संस्कार में पेड़ लगाने की अनोखी पहल

पटना ।। बिहार के गया जिले में पर्यावरण संतुलन बरकरार रखने के लिए लोगों ने चार साल पहले अनूठी पहल की थी, जो अब एक परम्परा का रूप ले चुकी है। जिले के बांके बाजार प्रखंड के एक गांव के लोगों ने मृतकों के दाह संस्कार के समय पौधा रोपने की पहल की थी, जिसके परिणामस्वरूप अब तक क्षेत्र में 1000 पौधे लगाए जा चुके हैं। 

नक्सल प्रभावित बांके बाजार प्रखंड के भलुआर गांव में प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण सुरक्षा में अपनी भागीदारी निभा रहा है। रौशनपुर ग्राम पंचायत के इस गांव में किसी भी व्यक्ति की मौत के बाद जब उसे दाह संस्कार के लिए ले जाया जाता है तो उसकी याद में पौधा लगाया जाता है तथा उसी स्थल पर एक शोकसभा की जाती है। शोकसभा में मृतक की आत्मा की शांति के लिए कामना के साथ-साथ उनके चित एवं चरित्र का वर्णन करती एक पुस्तिका भी लिखी जाती है, जिस पर सभी गांव वालों के हस्ताक्षर होते हैं। इसे ग्रामीण रिकॉर्ड के रूप में रखते हैं।

ग्रामीण बताते हैं कि पहले आसपास के पेड़ों को काटकर या लकड़ी खरीदकर शव जलाए जाते थे, जिससे गांव के पेड़ समाप्त हो रहे थे। अब अंतिम संस्कार के मौके पर पेड़ लगाने से उसे देखकर न केवल मृतक की याद ताजा हो जाती है, बल्कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई भी हो जाती है। इन पेड़ों की देखभाल मृतक के परिजनों द्वारा की जाती है।

गांव में इस अनोखी पहल की शुरुआत वर्ष 2007 में हुई थी। इसकी शुरुआत गांव में ही गठित नवयुवक संघ के संस्थापक विष्णुपद यादव ने की थी। उन्होंने आईएएनएस को बताया कि इसकी शुरुआत तीन मुख्य बिंदुओं को देखकर की गई थी। पहला यह कि किसी गरीब व्यक्ति की अंत्येष्टि में भी हर तबके के लोग शामिल हों। दूसरा, मृतक की याद कायम रखी जा सके और तीसरा, यह कि गांव में पेड़ की कमी न हो।

चार वर्ष पूर्व शुरू हुआ पौधरोपण आज परम्परा बन गई है। ग्रामीण बताते हैं कि इस परम्परा के तहत अब तक श्मशान घाट के आसपास करीब 1000 पौधे लगाए जा चुके हैं। 

भलुआर गांव के इंद्रदेव पासवान कहते हैं कि विष्णुपद की मां सम्मुख कुंवर की मृत्यु के बाद शुरू किया गया यह कार्य अब भी जारी है।

वे कहते हैं कि शुरू में इस काम के लिए लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन आज गांव वालों का पूरा सहयोग मिल रहा है और अब वे खुद इस कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।

[मनोज पाठक]

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