Home देश संस्कृति का हिस्सा बन गया है लैंगिक भेदभाव : सिन्हा

संस्कृति का हिस्सा बन गया है लैंगिक भेदभाव : सिन्हा

नई दिल्ली ।। अवसर मिलने पर महिलाओं ने कामयाबी की नई मिसाल कायम की, लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से में आज भी उनके साथ भेदभाव और दोयम दर्जे का व्यवहार बदला नहीं है। यह वास्तव में संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है। यहां तक कि शिक्षित लोगों के नजरिये में भी उन्हें लेकर कोई खास फर्क नहीं आया है।

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस (24 सितम्बर) पर आईएएनएस के साथ विशेष बातचीत में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने कहा, “लड़कियों के साथ भेदभाव हमारी संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है। इसलिए माता-पिता या दूसरे लोग उनके साथ असमान व्यवहार करने के बावजूद समझ नहीं पाते कि वे किसी तरह का भेदभाव कर रहे हैं।”

लड़कियां शिक्षा, खानपान और यहां तक कि जीने के अधिकार से भी वंचित की जा रही हैं। उनका बचपन समय से पहले खो जाता है। रसोई में मां का हाथ बंटाना हो या अन्य घरेलू जिम्मेदारियां, बोझ हर वक्त उनके कंधों पर ही आती है। सिन्हा के मुताबिक, “लड़कियों के साथ इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए किसी कानून की नही बल्कि जागरुकता की जरूरत है। अभिभावकों और युवतियों को एक ऐसा मंच मुहैया कराने की जरूरत है, जहां उन्हें समान अधिकारों तथा समान व्यवहार के बारे में बताया जा सके।”

उन्होंने कहा, “लड़कियों को इसलिए ऐसे मंच पर लाने की जरूरत है, ताकि कल जब वे मां बनें तो भावी पीढ़ी के साथ वह गलती न दोहराएं, जो उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने की।” उन्होंने जोर देकर कहा कि लड़कियों को समान अवसर मिले तो वे निश्चित रूप से बेहतर परिणाम देंगी।

लैंगिक भेदभाव का ही नतीजा है कन्या भ्रूण हत्या, जिससे उबरने की आस तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद दूर-दूर तक नहीं दिखती। देश की जनगणना रिपोर्ट 2011 इस बारे में और चिंताजनक तथ्य पेश करती है। हालांकि कुल लिंगानुपात में सुधार हुआ है और प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या वर्ष 2001 के मुकाबले 933 से बढ़कर 940 हो गई है, लेकिन छह वर्ष तक के बच्चों में लिंगानुपात गिरा है। वर्ष 2001 में जहां प्रति 1000 बच्चों पर बच्चियों की संख्या 927 थीं, वहीं इस बार गिरकर यह 914 हो गई है। राजधानी दिल्ली और इससे सटे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान कई राज्यों में बाल लिंगानुपात चिंताजनक स्थिति तक पहुंच गया है।

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा इसके लिए वजह वंश परम्परा आगे बढ़ाने के लिए लड़कों की चाह और लड़कियों की शादी पर होने वाले खर्च तथा दहेज को एक अहम कारण मानती हैं।

शर्मा ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, “इन दो कारणों ने इंसान को बर्बर बना दिया है। यह समस्या पढ़े-लिखे और शहरी लोगों में कम शिक्षित, अशिक्षित या ग्रामीणों की तुलना में कहीं अधिक है।”

शर्मा के अनुसार, “इसकी एक बड़ी वजह शहरों में सोनोग्राफी सहित अन्य तकनीकों की उपलब्धता है, जिससे लोगों को आसानी से पता चल जाता है कि गर्भ में पल रहा शिशु लड़का है या लड़की। लेकिन तकनीक का विस्तार धीरे-धीरे गांवों में भी हो रहा है, जिससे इस आपराधिक प्रवृत्ति का विस्तार अब गांवों में भी होने लगा है। शहरी व शिक्षित वर्ग में कन्या भ्रूण हत्या की बड़ी दर यह भी बताता है कि शिक्षा के बावजूद वंश परम्परा और दहेज को लेकर लोगों की मानसिकता बदली नहीं है।”

भ्रूण हत्या के खिलाफ प्री नैटल डॉयग्नोस्टिक टेक्नीक (पीएनडीडी) एक्ट सहित अन्य कानून होने के बावजूद इस पर रोक नहीं लगने के लिए महिला आयोग की अध्यक्ष प्रशासन की नाकामी को जिम्मेदार मानती है। उनका साफ कहना है, “नीतियों का सही तरीके से अनुपाल नहीं हो पाने के कारण ऐसा हो रहा।”

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर अपने संदेश में उन्होंने कहा, “जिस देश में लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा के रूप में देवियों को पूजा जाता है, वहां कन्या भ्रूण हत्या महापाप है। लोगों को लड़कियों के प्रति अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है।”

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