भारतीय पौराणिक कथाओं में समुद्र मंथन को सबसे महत्वपूर्ण घटना माना गया है। इस समुद्र मंथन में राक्षसों के साथ सभी देवी देवताओं ने हिस्सा लिया और पृथ्वी को बहुत जरूरी चीजे मिलीं। इसके बारे में बहुत सी कहानी सुनाई जाती है लेकिन कहीं इस बात का जिक्र नहीं होता कि मोहिनी ने ऐसा क्या कहा था कि राक्षसों ने समुद्र मंथन के बाद प्राप्त किया अमृत कलश उसे पकड़ा दिया और खुद लाइन में बैठ गए।
विष्णु रूप होने के कारण मोहिनी रूपवान तो थी साथ ही वाक निपुण भी थी। उसने राक्षसों के पास पहुंच कर कुछ ऐसा कहा जिससे राक्षसों को उस पर विश्वास हो गया और राक्षसों ने बल से अर्जित किया हुआ अमृत कुंभ मोहिनी को सौंप दिया।
अमृत कुंभ का निकलना
समुद्र मंथन में सबसे अंत में धन्वंतरि प्रकट हुए जिनके हाथ में अमृत कलश था। बलशाली राक्षसों ने उस अमृत कलश को छीन लिया। लेकिन शक्ति के मद में चूर राक्षस स्वयं ही अमृत पान करने के लिए आपस में लडने लगे। देवतागण दुर्वासा ऋषि के श्राप से इतने दुर्बल हो चुके थे कि वह अमृत कलश पाने के लिए प्रयास भी नहीं कर पा रहे थे।
देवताओं की रक्षा लिए धारण किया भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप
देवताओं को इतना दीन हीन देखकर भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया। मोहिनी इतनी सुंदर थी कि जो भी उसकी तरफ देख ले वो कामआसक्त हुए बिना नहीं रह सकता। ऐसा ही कुछ राक्षसों के साथ भी हुआ। इस रूप सुंदरी को देख सभी के राक्षस और देवता मंत्रमुग्द हो गए। इसके बाद मोहिनी राक्षसों की ओर आगे बढ़ी।
इस रूप सुंदरी को अपनी ओर बढ़ता देख कर राक्षस कामासक्त हो गए और अमृत की लड़ाई अब उनके लिए कम महत्वपूर्ण हो गई। राक्षसों के राजा बाली ने इस नौयोवना स्त्री की ओर देखकर बोला ‘ हे रूपसुंदरी, तुम कौन हो और क्या तुम यहां हमारे बीच चल रहे इस झगड़े को सुलझाने आई हो। यह तुम्हारी हम पर अति कृपा होगी कि तुम हमारे इस झगड़े को सुलझा दो और अपने स्वर्ण सरीखे कर-कमलों से हमें अमृतपान करवाओं।
दैत्यराज की इस बात को सुनकर मोहिनी ने कहा कि हे बलशाली राक्षस राज और देवराज इंद्र, आप दोनों ही महान ऋषि कश्यप की संतानें हैं। इसलिए आपके ज्ञान और शक्ति पर संदेह करना अनुचित है। इसके बाद भी ऐसी कौन सी स्थिति आ गई है जो भाई-भाई होकर भी आप दोनों को लड़ना पड़ रहा है। आप लोगों को चाहिए कि आप लोग आपस में ही बात करके कोई ऐसी युक्ति निकालें जिससे आपका झगड़ा समाप्त हो जाए।
मोहिनी की इस बात से राक्षस मंत्र मुग्ध हो गए तो मोहिनी ने एक और बात ऐसी बोली जिससे राक्षस पूरे दल सहित मोहिनी के सौंदर्य के साथ उसकी बुद्धि के भी दीवाने हो गए। इस बार मोहिनी ने कहा कि हे राक्षस गण और देव गण, मैं आपसे निवेदन कर रही हूं कि मुझे मध्यस्ता करने के लिए न दे। क्योंकि मैं स्वेच्छा चारिणी हूं और मेरी जैसी स्त्री पर आपको बिल्कुल भी विश्वास नहीं करना चाहिए जो कि बुद्धिमान लोगों का लक्षण हैं। आप दोनों ही भाई हैं तो अच्छा होगा कि इस झगड़े को खुद ही सुलझा लें।
ऐसे नीतिकुशल वचन सुनकर दैत्य, देवता ओर सभी पूरी तरह से मोहिनी पर आसक्त हो गए। इसके बाद दैत्यों ने अमृत का घड़ा मोहिनी को पकड़ा कर कहा कि हे दिव्य सुंदरी, हमें तुम पर ही सबसे ज्यादा विश्वास है। हमारे बीच में तुम ही इस अमृत को बांटों और हमें झगड़े से मुक्त करो।
अमृत का बंटवारा
अब क्या था मोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और राक्षसों को अलग-अलग लाइन में बैठने को कहा और राक्षसों को अपने रूप यौवन में इतना मोहित कर लिया कि उन्हें कुछ होश ही नहीं रह गया। इसके बाद देवताओं को अमृत पिलाया गया और राक्षसों को मातृ जल।
राहू और केतु का जन्म
राहू नाम के राक्षस ने मोहिनी का यह क्षल भांप लिया और जाकर देवताओं की कतार में बैठ गया। जैसे ही उसने अमृत पान किया उसे चंद्र और सूर्य देव ने देख लिया और शोर मचा दिया। इसके बाद मोहिनी रूप धारण किए हुए भगवान विष्णु ने अपना असली रूप धारण किया और राहू के गले को अपने चक्र से काट दिया।
यहीं से सर को राहू कहा गया और धड़ को केतु कहलाया। यह अमर होकर ग्रह रूप में हमारे सौरमंडल में स्थापित हो गए तथा समय समय पर ग्रहण के रूप में चंद्रमा और सूर्य को सजा देते रहते हैं।
Original published on AstroVidhi